अपना बचपन ही अच्छा था
जब माँ प्यार से उठाती थी और खाना खिलाती थी
जब हमें दुनिया की कोई परवाह नहीं थी
कहीं भी कुछ भी बोल देते थे बेखौफ
बिना सोचे कि कोई हमें जज करेगा
क्या सोचेगा हमारे बारे में
बस जीते थे जिंदगी खुश होकर
नहींकरते थेभेदभाव किसीमें
स्माइल करते थे और HI बोलते थे सबको
फिर चाहे वह 60 साल के अंकल हो या 4 साल की कोई बच्ची
हंसते भी खुलकर थे और रोते भीखुल के थे !!

पर ना जाने बड़े होते ही क्यों बदल जाती है हमारी सोच
क्यों सोच सोच कर बोलते हैं हम
क्यों सोचते हैं यह करूं या ना करूं
क्या सोचेगी दुनिया
क्यों लोगों को खुश करने के पीछे भागते हैं हम
क्यों घुट घुट के जीते हैं जिंदगी
क्यों नहीं मुस्कुरा कर मिलते सबसे और सिर्फउन्हीं से बात करते जिनसे हैं अपने वास्ते
अब तो रोना भी हो तो बंद कमरा ढूंढते हैं
और हंसते नहींज्यादा क्योंकि नजर न लग जाए
क्यों बदल गए हम
आखिर क्यों ??

इससे तो अच्छा था ना होते बड़ेहम
रहते हमेशा बच्चे बनकर
कम से कम जो भी बोलतेसीधा दिल से बोलते
ना करना पड़ता कुछ फिल्टर
ना सोचना पड़ता दुनिया का
बस अपनी मस्ती में रहते हरदम!!