फ़िर से वो आवाज़ आ गयी,अच्छा है
कहीं से उसकी बात आ गयी, अच्छा है
सारा दिन, चलते चलते थक गया था मैं,
चलो आखिर रात आ गयी,अच्छा है।
बुझ रहा था कुछ दिनों से मैं ख़ाक सा,
कहीं से फ़िर से आग आ गयी,अच्छा है
बिखरी बिखरी रह रही थी न जाने क्यों
फ़िर से वो मेरे साथ आ गयी, अच्छा है।
उस तूफां में छूट गयी जो यादें उसकी
इस गम से वो हाथ आ गयी, अच्छा है
तड़प रहे थे बिन बारिश के जाने कब से
बेमौसम बरसात आ गयी, अच्छा है।
टूट रहा था कण कण सा मै न जाने क्यों
फ़िर उसकी फ़रियाद आ गयी,अच्छा है
मैं भी उसको याद कर रहा था, कब से
उसको भी मेरी याद आ गयी, अच्छा है।
शुभम पाठक