कहाँ जा रही दुनिया कहा जा रहे लोग
करके हर दिन हंगामें जाने क्या पा रहे लोग
लड़ रहे हैं मर रहे न जाने क्या पाने को
शर्म-लाज़ सब भूल चुके हैं,बचा ही क्या पछताने को
जाने इस ज़माने में ये क्या चल रहा है
हर दिन नया नया है मौसम बदल रहा है।
अपने-अपनों को भूल रहे है, ग़ैर ही अच्छे लगते हैं
हर शक़्स फ़रेबी लगता है, बस कुछ ही सच्चे लगते हैं
उन कुछ में भी बस कुछ ही जो कुछ कुछ कहते रहते हैं
हैं याद नहीं वो अक्स मेरे जो हर पल साथ में रहते हैं
दिखता नही पर वक़्त, हाथों से फिसल रहा है
हर दिन नया नया है मौसम बदल रहा है।
सबको बस ख़ुद से मतलब है, औरों से क्या लेना है
बस अपना फायदा हो जाये, फ़िर ग़म ही ग़म देना है
वो तब तक पूंछा जाता है,बस जब तक काम आता है
इक बार निकल जाने पर ग़र्ज, कोई नहीं बुलाता है
इंसान अपनी लालच के लपटों में जल रहा है
हर दिन नया नया है मौसम बदल रहा है।
शुभम पाठक