ये सोच के डर सा लगता है, कि माँ के बिन क्या होगा,
न रंग बिरंगे पल होंगें, सब कुछ सूना सूना होगा।
बस रह जायेंगी यादें वो मेरे घर के दीवारों में
सब कुछ बदला-2 होगा और खाली मेरा मकाँ होगा।
वो बातें भी याद आयेंगी वो माँ भी याद आएगी
घर के हर ज़र्रे-ज़र्रे में छूटा उसका निशाँ होगा।
न पहले जैसा घर होगा और न ही कुछ नया होगा
वक्त तो चलता जाएगा पर सब कुछ वहीं रुका होगा।
सब चीज़ कहीं बिखरी होगी कोई न ढूंढ के तब देगा
माँ के बिन क्या होती दुनिया, तब जाके कहीं पता होगा।
शुभम पाठक