अंजान बनकर आखिर कब तक हदों में रहें
क्यूं न कुछ दिन चलकर मयकदों में रहें।
जो अपने हक़ और अधिकारों के लिए लड़ न सके
बेहतर यही है कि वो अपने घरों में रहें।
जिनको मिली आज़ादी वो आबाद हो गए
वो लोग क्या कर पाए जो बंदिशों में रहें।
शराफ़त का झूठा नक़ाब ओढक़र, जाने कैसे
लोग आगे बढ़ते गए और हम सफ़ों(पंक्ति) में रहें।
हम भूल अक्सर जाते हैं, एहसान लोगों का
जो देकर हमें उजाले, खुद अंधेरों में रहे।
इतना पढ़-लिखकर आख़िर उनको मिला भी क्या
जो लोग आख़िर भटके मज़हबों में रहें।
शुभम पाठक