आज ज़िन्दगी खुल के जीने की सोचता हु, तो एक मज़ाक सा बन जाता हु,
जब ठहरने की सोचता हु तो उठने का नाम नहीं लेता हु,
वक़्त इतनी देर साथ चलता था मानो अब मुँह फिरा कर बैठा हैं
कौन मनाये उस ज़ालिम वक़्त को
जब ज़िन्दगी ने ही मेरा साथ छोरा हैं
मेरी ज़िन्दगी मुझ पे ही हस्ती हैं !!!
सवेरे से कब शाम हो जाती हैं और शाम से कब सुबह,
सुबह की चाये और रात की कॉफी ही दिन याद दिलाती हैं,
घर तो सिर्फ सोने की जगह बन चुकी हैं, जबसे कम ने गुफ्तगू कम और ठिकाने ज्यादा बना दिए हैं,
जब ज़िन्दगी से पता पूछना चाहा तो,
उसने भी अपने अंदाज में time नहीं है ये कह के दे मारा,
और फिर मुस्कुराते हुए चल परा !
संदेशे तो बहुत है.... उस भीड़ में ज़िन्दगी ने भी कुछ लम्हे याद दिलाये
उसका एक शब्द
और मेरे हज़ारो सवाल
जिसका जवाब उस खत में वो है छुपाये
चार कदम चल और अपनी करीबी तस्वीर को देख
रोज सोता है, पर कुछ समझता ना है
ज़रा उस मासूम चेहरे को तो देख जिसे तू बचपन कहता है
रोज अपने साथ ही वो तस्वीर रखता है फिर भी अपने आप को समझ नहीं पता हैं
ज़िन्दगी तो आज भी हस्ती हैं मुझ पे,
शायद उन हज़ारो खत के पंनो में उसकी आखरी बयानी को आज पढ़ पाया हु इसलिए !!!!