उसने तन मन धन से पाला
प्यार से खिलाया हर एक निवाला
हर मुसीबत से हमको बचाया
खुद बनकर छत और साया
देर रात जागती ताकी हम सोये
हमेशा हंसती ताकि हम न रोये
खुद जूठा खाती पर हमें ताजा खिलाती
बुरी नजर से बचूं, काला टीका लगाती
मेरी हँसी देख वो अपने गम खो देती
कभी गर डांटती मुझे तो खुद रो देती
मेरी हर गलती पर वो मुझे समझाती है
पापा के गुस्से से हर बार बचाती है
ऐसे हँसते खेलते हम बड़े हो गये
कुछ जिम्मेदारियों के लिए खड़े हो गए
माँ की उम्र अब ढलने लगी है
झुक-झुक कर अब वो चलने लगी है
बेटा अब देर से सोता है
रात भर न जाने किसके लिए रोता है
अब वो माँ तो जैसे याद ही नहीं
उसने जो भी किया उसकी कोई बात ही नहीं
जीने मरने की अब क़समें खाने लगे हैं
और सब याद है बस माँ को भुलाने लगे है
जो तेरे आगे पीछे हर रोज लगती है
वही माँ अब तुझको बोझ लगती है
तुझसे उसे और कुछ नही चाहिए
बस तू चाहिए और तेरा थोड़ा वक्त चाहिए
वो प्यार से खिलाती थी तू गुस्से से पूछता है
वो अब भी मनाती है तू जब भी रूठता है
वो अब बूढ़ी है उसका अब दो ही सहारा है
एक उसकी लाठी और दूसरा तू उसको प्यारा है
उसने जो किया कोई आधा भी नही कर सकता
माँ को दुखी करके कोई ख़ुश नही रह सकता
ये लिखते वक़्त आज मुझे भी गम है
और माँ पे चाहे जितना लिखूं सब कम है।
  शुभम पाठक

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