मैं कल क्यूं नहीं लिखता?

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Hardik Pathak
Jun 15, 2019   •  44 views

ज़माना हो गया ना मैंने क़लम बदले है ना ही अपने उसूल बदले है, बदले हैं तो बस ज़माने के दस्तूर बदले हैं।

अक्सर मुझसे लोग पूछा करते है आखिर तेरी क़लम में ऐसा क्या जादू है जो कभी रुकती ही नही? क्या ऐसी बात है जो उनको रुकने पर और मेरे लेखों पर नज़र घुमाने पर मजबूर कर देती है। ऐसा क्या ख़ास है मेरे लेखन में जो वह औरो को छोड़कर मेरे लेख पढ़ते हैं। क्यों वह मेरी कविताओं में अपने आप को देख पाते हैं। क्या मेरी कविता उनको उन्ही से रूबरू कराती है या फिर उनका चरित्र दर्शाती है।

मैं ठहरा बच्चा सा यूँ क़लम ही तो है जो बड़ी है मुझसे "गौर करना ऐ मेरे समाज के लोगों "

तुमने मुझे ये मौका दिया है जिसमे मैं नफरत लिखता हूँ, इश्क़ लिखता हूँ, दर्द लिखता हूँ, किसी को खोने का गम लिखता हूँ, किसी लड़की के साथ हुए अत्याचार लिखता हूँ, एक अनाथ की सोच लिखता हूँ, पैदा हुई नहीं उसका गला पेट में ही घोट दिया जाता है ये लिखता हूँ, सपने को हकीकत बनाता हूँ, सपने कैसे कुचलते हो तुम ये लिखता हूँ, तुम बस बोलते हो लिखो लेकिन लिखता हूँ तो पूछते हो क़लम क्यों नहीं बदली? ये लिखता हूँ, बदलने देते नहीं तुम मुझे और ना ही खुद को बदल पाते हो यह लिखता हूँ, फ़ौज में गए भाइयों की राखी का दर्द लिखता हूँ, पन में ही खिलौना देने के जगह खिलौना बना लिया ये लिखता हूँ, बच्चो की हँसी लिखता हूँ, ससुराल जा रही बेटी के आंसू लिखता हूँ, बेटी होने पर रुदन और बेटे होने पर उल्लास करते लोगो की चर्चा लिखता हूँ, फेंक के चेहरे पे तुम्हें जो शांती मिलती है ये लिखता हूँ, शर्म ना आने वाले चेहरे की बेहद गन्दी हँसी को लिखता हूँ, तुम्हारी किसी को अग़वा करके उसपे हैवानियत दिखाना ये लिखता हूँ, तुम समाज के लोगों पे धिक्कार है ये लिखता हूँ, हमारे सपनों को चीर देते हो ये लिखता हूँ, मैं पैदा पुरुष और ना ही महिला हुआ इसलिए मुझपे तुम थूक देते हो ये लिखता हूँ, अपनी गंदी सोच के पन्ने हमेशा पलटते हो ये लिखता हूँ। सपनों का संसार लिखता हूँ और अमीरों का अहंकार लिखता हूँ और जो तुमको पसंद आये उसे बार बार लिखता हूँ….

लेकिन आखिर में तुम जीत जाते हो...

ऐ समाज के लोगों सच कहूं तो मैं आज लिखता हूँ;

लेकिन कल नहीं लिखता!

मैं कल क्यों नहीं लिखता?

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