अपनी मंज़िल मैं पा लूंगा
एक दुनिया मैं भी बसा लूंगा
दो चार दिनों का कष्ट है ये
ख़ुद को भी मैं हँसा लूंगा
हर रोज़ की तरह ही, ये शाम ढलेगी
लेकिन तेरी कमी खलेगी।
कई लोग मिलेंगे अच्छे भी
कुछ मन के प्यारे सच्चे भी
रख लूंगा उन्हें सम्भाल मैं
तेरे दुखों को लूँगा पाल मैं
हूँ जिन्दा जब तक ये साँस चलेगी
लेकिन तेरी कमी खलेगी।
जब याद तुम्हारी आती है
मन को झकझोर सा जाती है
बिन नींद भी अब मैं सो लेता हूँ
गाने सुनकर के रो लेता हूँ
है विश्वास ये की तू कभी मिलेगी
लेकिन तेरी कमी खलेगी
शुभम पाठक