क्या ये तुम हमेशा जाति-धर्म करते हो
इंसान होकर जानवरों की भांति लड़ते हो
क्या ये तुम हमेशा हिंदू मुसलमान करते हो
बिन वजह ही आपस में कटते-मरते हो ।
क्या ये हमेशा तुम ऊँच नींच करते हो
हर इंसान को जो तुम इंसान न समझते हो
ऊँची जाति कहके कुछ को पुरस्कृत करते हो
नीची जाति कहके बहुतों को तिरिस्कृत करते हो ।
क्या ये हमेशा तुम अगड़ा-पिछड़ा करते हो
क्यों दूसरी जाति को देखकर बिगड़ा करते हो
खींच देते हो धर्म और जाति के नाम पर दीवारें
फिर वर्षो तक उसी के नाम पर झगड़ा करते हो ।
इस लड़ाई ने ही न जाने क्या क्या बिगाड़ा है
किसी का भाई-बेटा तो किसी का सुहाग उजाड़ा है
उसने बन्द कर दिया जाति धर्म के नाम पर लड़ना,
जिसने इंसानियत का बीज सीने में उतारा है।
शुभम पाठक