अक्सर उठ जाता था मैं, सहर से पहले
कि अब तो नींद ही नहीं आती, फ़जर से पहले।
मैं भी आपके ही जैसा इंसां था कभी
मुख़्तलिफ़ बिल्कुल भी न था, हिज्र से पहले।
बाद-ए-सबा के फिर वैसे तस्कीन न दिखा
मिला सुकूँ न कहीं रूह को शज़र से पहले।
आफ़ताब के ढ़लने से पहले ही मैं आ जाता
पर रस्ते बड़े कठिन मिले, शहर से पहले।
आकर मैदान-ए-जंग में तुम एक बार देखो
मंज़िल बड़ी आसां लगती,सफ़र के पहले
शुभम पाठक
सहर-सुबह, फ़जर-सुबह
मुख़्तलिफ़-अलग, हिज्र-बिछड़ना
शज़र- पेड़, आफ़ताब-सूरज