नमस्ते! पहचाना मुझे?
मैं हूँ नारी।
एक माँ, एक बेटी, एक पत्नी, एक दोस्त।
पूजते हो तुम मुझे, कभी दुर्गा के रूप में, कभी काली के रूप में, कभी सरस्वती तो कभी लक्ष्मी। लेकिन माफ़ करना, माफ़ करना अगर मुझे तुम्हारी पूजा एक ढोंग लगे। माफ़ करना अगर मुझे तुम्हारा प्यार छल लगे। क्या करूँ? मैं यकीन तो करना चाहती हूँ लेकिन तुम्हारा प्यार कभी महसूस नही हुआ है मुझे। कहाँ थी तुम्हारी श्रद्धा जब झुलस रही थी सती के आग में? कहा था तुम्हारा प्यार, तुम्हारा स्नेह, जब मुझे ज़बरन किसी कोख से निकालकर, एक गंदे नाले में फेंक दिया गया? अग्नि को साक्षी मानकर जीवश्साथी माना था ना तुमने? तो फिर क्यों दहेज के नाम पर अत्याचार किया? क्यों मेरे मना करने के बावजूद मेरे शरीर पर प्राण भक्षी की तरह वार किया? अगर बेटी जैसी थी मैं तुम्हारे लिए, मेरे बचपन का गला क्यों घोटा? अपनी गंदी नज़र मेरी नन्ही सी जान पर क्यों डाला?
थक गई हूँ मैं, तुम्हारे इस दोगलेबाजी से। और नहीं चाहिए तुम्हारी पूजा। नहीं चाहिए मुझे कोई देवी का ओहदा। मेरी बस इतनी सी मांग है कि मुझे एक इंसान का ओहदा मिल जाए। तुम्हारी परछाई से बाहर आना है मुझे। आखिर कब तक सीता अगनि परीक्षा देती रहे? हर युग में सीता पर सवाल उठा है। हर युग में द्रौपदी चीरहरण का शिकार नहीं बनेगी।
"छोडो मेहँदी खडक संभालो
खुद ही अपना चीर बचा लो
द्यूत बिछाये बैठे शकुनि,
मस्तक सब बिक जायेंगे
सुनो द्रोपदी शस्त्र उठालो, अब गोविंद ना आयेंगे|"