नारी,सहवास, शील,हया और रिश्ते!

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राजू रंजन
Jul 14, 2019   •  384 views

#sex #नारी

काफी समय से कुछ लिखने को जी कर रहा पर इस संवेदनशील विषय को छूने की हिमाकत मैंने आज तक नहीं कर पाया। पर यह विषय जितना पेचीदा दिखता है उतना है नहीं पर एक ही सवाल जो रास्ता रोकता आया मेरा...वो है समाजिक रजामंदी न मिलने का डर। पर अब दिन गुजर रहे, मैं थोड़ा बेशर्म होता जा रहा ✍✍✍जब मेरे जज़्बात और उलझती जा रही

खैर!आज कोशिश करता हूँ...

हमारे देश में लड़कियों के लिये पता नहीं कितने पवित्र टर्म इस्तेमाल किये जाते हैं पर अंततः वो एक भोग विलास की वस्तु ही नजर आती है।

सस्ती हो चली वो शब्द...अब मुझे ए सारे शब्द महज भौतिक और पौराणिक श्रृंगार नजर आतेहैं

वर्जिनिटी क्या है मैंने उम्र के 36 साल के पड़ाव पे भी नहीं जान पाया। यह शब्द क्यों आये, कैसे आये,यह रहस्य की बात आज तक समझ में नहीं आया। क्या यह तोहफा है जो नारी संजो कर रखती है उनके लिये जिनके पास शायद कोई शील है ही नहीं। चारित्रिक अस्तित्व जरूरी है पर प्रमाण देना क्या घिनौना मानसिकता नहीं।जेहन में रोज नंगा नहाते है और प्रमाण ढूंढते हैं उनकी चारित्रिक अस्तित्व का। न जाने अपने जेहन ...कितनों से हर रात अपनी शील भंग कराते हैं... तब शील भंग नहीं हुई जो एक बार तन मिलन से पूरा अस्तित्व ही विलीन बता जाते!

अगर शील की चिंता है तो फिर क्यों पोर्न की लत बढ़ती जा रही , रिश्ते बनते जा रहे, टूटते जा रहे हैं। ठहराव नहीं है अब रिश्ते में क्योंकि दोनों पक्ष शायद बहक सा गया है, इरादे ठीक नहीं लगते। मंशा अगर रिश्ते निभाने की होती तो दर्द तो लिखते पर नाम हर दिन अलग एक जुदा इंसान का क्यों है होता। किसी के जाने के बाद भी अगर रिश्ते न मरे तो समझो तुम्हारा वर्जिनिटी अब भी कायम वरना यहाँ तो जेहन में रोज वर्जिनिटी का शील भंग है होता

हम पुरूष सामाजिक जीवन में किसी के चरित्र को वर्जिनिटी से आंकते हैं पर यह कितनी ओछी मानसिकता है इसका प्रमाण इस बात से मिलता है कि हम सती सावित्री नारियों से शादी या दोस्ती की उम्मीद पालते हैं, जिनका शील हया सब पास हो।

मैं चाहूं तो हँसी के गुब्बारे हवा में हर दिन लहरा सकता हूँ पर अगर लड़कियां थोड़ी खुली विचार की नजर आए तो न जाने हम क्या कुछ समझ बैठते हैं, उन्हें वाचाल, उनके आचरण को जिस्म की भूख मिटाने के लिये किया गया प्रयास कह जाते हैं, अपने लिये एक अवसर पाते हैं बस उनमें थोड़ा खुलेपन का बोध महसूस होनी चाहिये। तब तो हम यह सवाल नहीं करते कि लड़की वर्जिन है या नहीं, क्योंकि तब हमारी मंशा पवित्र शादी की नहीं, महज भोग विलास की जान पड़ती है।

मेरे लिये जिस्म को स्नान करवाना, अपनी तपिश बुझाना ही नरक सा लगता है। मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता की अतीत में कोई लड़की क्या थी। मेरे भी एक आध दोस्त रहे ही जो लड़की थी, मैंने कभी यह सवालात से उन्हें तंग न किया की उनके जीवन मे कौन आया, कौन गया, क्या उनका कोई शारीरिक रिश्ता किसी से रहा! यह सारी बातें मुझे ऐसा लगता है जैसे मैं उनसे अतीत के रहस्यों को कुरेदकर उनका शील हरण कर दूंगा। जब इरादों में हुस्न का दीदार न हो ,महज उनके संग ताउम्र रिश्ते जीने की कवायद हो, तो ये शीलहरण या फिर उनका किसी के साथ हमविस्तर होना , मुझे उन पे शर्म नहीं, बल्कि खुद पे शर्म आएगा और शायद सोचूंगा की मुझे रिश्ते की परवाह नहीं, सोने की फिक्र है।

इरादों में जब पवित्रता हो तब महज वो एक तन का टुकड़ा जान पड़ता है वरना किसी के लिये मंदिर या उपवन। मेरे लिये वो सिर्फ पीढ़ियों को आगे बढ़ाने की एक उपक्रम। उससे ज्यादा मेरे लिये उस अंग काकोई अस्तित्व नहीं। आज भी दोस्ती है खूब है पर इसका मतलब यह तो नहीं, की मेरे जेहन में किसी की शील भंग करने की लालसा है। उनका अस्तित्व का कोई वजूद नहीं गर वो हमविस्तर हो जाएं पर पुरुष तो साफ कर ही लेते हैं गंगा जल से, उनका अस्तित्व हमेशा पाक।

कहते हैं कि एक चरित्र की उम्र आपकेक्रियाकलापों से निर्धारित होता है। आपके जेहन में उपजे भोग विलासिता के भाव निर्धारित कर देता है कि रिश्ते कब तक है। शौक उनका भी होता है किसी के संग जिंदगी के हर भाव को साझा करने की पर हम उसे अपने लिये एक सिग्नल मान बैठते, हमें तब तक ही वो रिश्ते पवित्र जान पड़ते हैं,जब तक हम अपनी गर्मी उनमें न उड़ेल देते फिर किसी और कि तलाश में लग जाते....और बात करते हैं शील की, हया की। जालिम फिर...नारियों को जिस्म के द्वारा किया कुसूर पाप कह....हेय दृष्टि से देखने लगते ,कह जाते हैं कि उनका चरित्र दागदार जबकि वो न जाने कितनी बार, अपना चरित्र, मयखाने, और तवायफ़ों की कोठी में भेंट कर आते हैं

अरे मैंने! दोस्ती और रिश्ते को इस कदर निभाया की लोग डर के भाग गए कि कहीं मेरे चक्कर में, अपने उनके पीछे न छूट जाएं क्योंकि जब रिश्ते में सिर्फ आप त्याग दिखाते हो तो उस अंग संग जश्न का उन्माद ही नहीं पनपती । तभी वो रिश्ते... हम जैसे को पहेली समझ बैठते यह सोच कि जब उस अंग की इसे चाह नहीं तो कैसे यह आज के भौतिक दौर का इंसान हो सकता है जो बेवजह, इस कदर मुझे सम्मान दे।

तभी उनका ज़हन उनसे सवाल करता कि कहीं ज़हन में सिर्फ इसका ही चेहरा तो घर नहीं कर जायेगा, इसीलिये वो त्यागपूर्ण रिश्तेको मार जाते क्योंकि उस रिश्ते का कोई सामाजिक नाम जो नहीं होता। महान होकर भी वो रिश्ता दागदार होकर पिट जाता,उन्हें अपना कहने वाले, आहिश्ते से उन्हीं के हाल पे छोड़ जाते।

समाज....हमें पागलों सा एक दूसरे को ताउम्र त्याग और समर्पण की मूरत बना कर एक दूसरे से दूर कहीं पीछे सदा को छोड़ जाता है।

पर उसकी कीमत चंद पलों के सुख से कहीं बेहतर है। वर्जिनिटी जेहन में बसता है, अंग में नहीं। मन मिलन में सारे अंग मिल जाते हैं, पलंग दोमचने की क्या जरूरत। रूह से रूह का मिलन दो जिस्मों से नहीं बल्कि समर्पण से होता है फिर किसी अंग को निशाना बना पूरी चरित्र को दागदार बोलना शक करना शोभनीय नहीं

✍राजू (जज़्बाती उलझन)

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