काली स्याही का वो रंग , जो लिखा तो मैं ही था
दूर किसी दुनिया का ढंग , जो दिखा तो मैं ही था ।
मैं ही था जो उस चौखट को लांग कर यहां आया था ,
मैं ही था जो सबकी किस्मत मांग कर यहां आया था।
उम्मीद की मैंने इस दलदल में नौका पार लगाई थी ,
जब टूट गया था बदन ये सारा , मां की याद भी आई थी।
बचपन की वो गालियां जिनमें था खुशियों का वो झरना,
अब भूक मिटाने के जंजाल में हम सब को है मरना।
ऐहसानो के उस बोझ के नीचे जो टीका तो मैं ही था,
बाजारों में रद्दी के भाव जो बिका तो मैं ही था।
दूर किसी दुनिया का ढंग जो दिखा तो मैं ही था।
जो दिल निचोड़ के लिखी थी बातें,
बातें वो बहुत पुरानी थीं।
इन आशाओं की भीड़ में , मेरी भी एक कहानी थी ।
जब लोगों से मैं कहता था ,
अपने मन की ये बातें ।
हस्ते थे वो मेरे उपर , धुत्कार के वो थे जाते ।
अब कहना चाहता हूं उनको ,
फिर से तुम मुझको सुनलो ।
खुश हूं मैं ये सब लिख लिख के , तुम भी कुछ बेहतर चुनलो।
पैर कटे थे फिर भी उनपे खड़ा तो मैं ही था,
जिम्मेदारी में घुट घुट के मरा तो मैं ही था।
काली स्याही का वो रंग जो लिखा तो मैं ही था।