सावित्री बाई फुले-एक महान व्यक्तित्व

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Shristy Jain
May 23, 2019   •  21 views

भारत की प्रथम महिला शिक्षिका एवं मराठी काव्य की अग्रदूत सावित्री बाई का जन्म 3 जनवरी, 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले में नामगांव नामक छोटे से गांव में एक किसान परिवार में हुआ। 9 वर्ष की आयु में सावित्री का विवाह 12 वर्ष के ज्योतिराव गोविंदराव फुले से कर दिया गया। उनकी कोई स्कूली शिक्षा नहीं हुई थी और तीसरी कक्षा तक पढ़े थे। सावित्री जब छोटी थी तब एक बार किसी किताब के पन्ने पलट रहे थे तो उनके पिता ने किताब छीन कर फेंक दी क्योंकि उस समय दलित और महिलाओं को शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार नहीं था। सावित्री उस फेंकी हुई पुस्तक को चुपचाप उठा कर लाए और निश्चय किया कि वह 1 दिन पढ़ना अवश्य सीखेगी। सावित्री ने जो सपना पाला था उसी को पूरा करने के लिए ईश्वर ने ज्योतिराज जैसे व्यक्ति को इनका पति बनाकर भेज दिया। ज्योति राव खेत में काम करते थे और सावित्री जब उन्हें खाना देने जाती थी, तब वे सावित्री को पढ़ाते थे। घर बाहर सब का विरोध झेलते हुए भी सावित्री ने अपना अध्ययन पूरा किया। जहाँ ज्योतिराव ने उनका दाखिला एक प्रशिक्षण विद्यालय में कराया था।

नारी शिक्षा की आवश्यकता को जानकर 1848 में अपने पति के साथ मिलकर विभिन्न जातियों की 9 छात्राओं के साथ बालिका विद्यालय की स्थापना की। स्कूल खोलने पर लड़कियों को पढ़ाने के लिए कोई अध्यापिका ना मिली तो स्वयं को उस योग्य बनाया और अध्यापन कार्य किया।

वह भारत के प्रथम बालिका विद्यालय की प्रथम महिला शिक्षिका और प्रथम किसान स्कूल की संस्थापिका बनी। 1852 में अछूत बालिकाओं के लिए विद्यालय की स्थापना की। स्त्री शिक्षा के विरोधी मानने वाले लोगों द्वारा भयंकर विरोध किया गया। स्कूल जाते समय सावित्री पर पत्थर और गंदगी फेंकी जाती थी। दृढ़ निश्चयी सावित्री थैले में एक साड़ी लेकर लेकर चलती थी जिसे स्कूल में जाकर बदल लेती थी। 1852 में एक 'महिला मंडल' का गठन किया और भारतीय महिला आंदोलन की अगुवा भी बनी। 28 जनवरी, 1853 को बाल हत्या प्रतिबंध गृह की स्थापना की जहाँ विधवाएं और गर्भवती, शोषित, पीड़ित अपने बच्चों को जन्म दे सकती थी और बच्चों को इस ग्रह में रखकर भी जा सकती थी। इस ग्रह की पूरी देखभाल व बच्चों का पालन पोषण सावित्रीबाई स्वयं करती थी। 1855 में मजदूरों को शिक्षित करने के उद्देश्य से 'रात्रि पाठशाला' खोली। उस समय विधवाओं को जबरदस्ती मुंडवा दिया जाता था। सावित्रीबाई ने अत्याचार का विरोध किया और नाइयो से संपर्क कर समझाया। इसी के चलते 1860 में नाइयो ने हड़ताल कर दी कि वे किसी विधवा का सिर गंजा नहीं करेंगे और एक कुप्रथा का अंत भी हो गया।

24 सितंबर, 1873 को ज्योतिबा के साथ मिलकर सावित्रीबाई ने सत्यशोधक समाज की स्थापना की। विधवा विवाह की परंपरा शुरू की गई। फुले दंपति के कोई संतान नहीं थी और उन्होंने एक विधवा ब्राह्मणी का पुत्र गोद ले लिया। इसका फुले परिवार में तीखा विरोध हुआ और पिता पर दबाव डालकर पति पत्नी को घर से निकलवा दिया। इसके कुछ समय के लिए उनका नाम रुका अवश्य, पर शीघ्र उन्होंने एक के बाद एक तीन बालिका स्कूल खोल दिए। महाराष्ट्र में 1876 व 1896 में दो बड़े अकाल एवं पुणे में फैले प्लेग के समय सावित्री ने पीड़ितों के बीच में जाकर राहत कार्य किए। प्लेग से पीड़ित एक छोटे बच्चे को अस्पताल ले जाते समय प्लेग ने इन्हें भी घेर लिया और 10 मार्च, 1897 को इनका निधन हो गया। शिक्षा के क्षेत्र में योगदान के लिए 16 नवंबर, 1852 में अंग्रेज सरकार ने शॉल भेंट कर सम्मानित किया। केंद्र और महाराष्ट्र सरकार ने सावित्री बाई की स्मृति सम्मान में कुछ पुरस्कारों की भी स्थापना की है। सावित्री बाई के सम्मान में भारत सरकार द्वारा एक डाक टिकट भी जारी किया गया है।

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