'मां' इस लघु शब्द में प्रेम की विराटता निहित है। मां के अंदर प्रेम की पराकाष्ठा है। मां प्राण है शक्ति है, ऊर्जा है, प्रेम, करुणा और ममता का पर्याय है। मां ही मंदिर है, मां ही तीर्थ है और मां ही प्रार्थना है। मां को धरती पर विधाता का प्रतिनिधि कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। कण-कण में व्याप्त परमात्मा किसी को नजर आए या ना आए पर मां हर किसी को हर जगह नजर आती है। मां केवल जन्म दात्री ही नहीं जीवन निर्मात्री भी है। मां धरती पर जीवन के विकास का आधार है। जन्म लेने के उपरांत बल्कि गर्भ में भी शिशु की पहली गुरु मां है। इसलिए वेदों में उसे सर्वप्रथम स्थान दिया गया है।
मातृ देवो भवः के बाद ही पितृ देवो भवः और आचार्य देवो भवः कहा जाता है। रामकृष्ण परमहंस ने समझाया है कि तुम मुक्ति नहीं चाहते। अपनी जवाबदेही से भाग रहे हो। अपनी बूढ़ी मां को असहाय छोड़कर तुम्हें मुक्ति कभी नहीं मिलेगी। तुम्हारी सच्ची मुक्ति इसी में है कि तुम पूरी शक्ति के साथ अपनी बूढ़ी और असहाय मां की सेवा करो। उनकी सेवा ही ईश्वर की भक्ति है। मां की सेवा मुक्ति का रास्ता है।
उसको नहीं देखा हमने कभी,
पर उसकी जरूरत क्या होगी,
ए मां तेरी सूरत से अलग,
भगवान की सूरत क्या होगी?
मां की ममता भी बहुत महान होती है।पहले 9 महीने तक अपने गर्भ में हमको पालती -पोसती है।अपने सारे दुख सुख भूलकर हमारी सेवा में ही लगी रहती है और जब हम गर्भ से बाहर आते हैं तब भी हमारी ही चिंता में अपनी सारी उम्र काट देती है। सिर्फ मांं ही है जो पूरी दुनिया में हमसे अथाह प्रेम कर सकती है ।
दुनिया हमारी दस कमियों को हमें बता देती है यदि हम सही हैं तब उसमें भी हम को गलत बना देती है, किंतु सिर्फ मांं ही ऐसी है जो हमारी हजार कमियों में भी अच्छाई ढूंढ लेती है।मां को भगवान का दर्जा स्वयं भगवान ने ही दिया है।मंदिर मस्जिद तो हम जाते ही रहेंगे क्यों ना रोज अपनी मां के चेहरे पर एक हँसी लाकर अपना धर्म पूर्ण करें!!